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अरण्यक

आज के ज़माने में अरण्यक बहुत ही प्राचीन सा नाम लगता है किन्तु वह नाम उसके लिए एकदम उपयुक्त था। उसके लिए ही क्यों, यह नाम मेरे, आपके और सभी के लिए उपयुक्त है। आज नहीं तो कल, हम सभी अरण्यक होंगे। लगभग तीस वर्ष पूर्व पूर्णिमा की एक रात को मैं छत पर टहल रहा था। बहती गंगा में पूर्ण चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा दिखाई पड़ रहा था, मानो कोई सफ़ेद कपड़ा किसी कंटीली झाडी में फँस कर रह गया है, और लहरों का पूरा ज़ोर भी उसे अपने साथ बहा ले जाने में अक्षम है। गंगा के पीछे, शिवालिक के घने जंगलों में, मंद-मंद बयार से पेड़ों के पत्तों के हिलने के अलावा और कोई ख़ास हलचल नहीं थी। अपने ही ख़्यालों में खोया हुआ मैं, चन्द्रमा के उस प्रतिबिम्ब को बड़ी देर से निहार रहा था कि अचानक मेरा ध्यान भंग हुआ। ऐसा लगा कि किसी जंगली जानवर ने उस पार से नदी में एक छलांग लगाई हो। चन्द्रमा के उस प्रतिबिम्ब पर मानो एक क्षणिक ग्रहण सा लगा,और तुरंत हट भी गया। मुझे आभास हो गया कि वह जो भी था, एक लम्बी छलांग में, नदी को पार कर, मेरे घर के पिछले आँगन में घुस चुका था। बिना देर किये मैं छत से नीचे उतर आया और दीवार पर सालों से टंग