अरण्यक

आज के ज़माने में अरण्यक बहुत ही प्राचीन सा नाम लगता है किन्तु वह नाम उसके लिए एकदम उपयुक्त था। उसके लिए ही क्यों, यह नाम मेरे, आपके और सभी के लिए उपयुक्त है। आज नहीं तो कल, हम सभी अरण्यक होंगे।

लगभग तीस वर्ष पूर्व पूर्णिमा की एक रात को मैं छत पर टहल रहा था। बहती गंगा में पूर्ण चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा दिखाई पड़ रहा था, मानो कोई सफ़ेद कपड़ा किसी कंटीली झाडी में फँस कर रह गया है, और लहरों का पूरा ज़ोर भी उसे अपने साथ बहा ले जाने में अक्षम है। गंगा के पीछे, शिवालिक के घने जंगलों में, मंद-मंद बयार से पेड़ों के पत्तों के हिलने के अलावा और कोई ख़ास हलचल नहीं थी। अपने ही ख़्यालों में खोया हुआ मैं, चन्द्रमा के उस प्रतिबिम्ब को बड़ी देर से निहार रहा था कि अचानक मेरा ध्यान भंग हुआ।

ऐसा लगा कि किसी जंगली जानवर ने उस पार से नदी में एक छलांग लगाई हो। चन्द्रमा के उस प्रतिबिम्ब पर मानो एक क्षणिक ग्रहण सा लगा,और तुरंत हट भी गया। मुझे आभास हो गया कि वह जो भी था, एक लम्बी छलांग में, नदी को पार कर, मेरे घर के पिछले आँगन में घुस चुका था। बिना देर किये मैं छत से नीचे उतर आया और दीवार पर सालों से टंगी, अपनी खाली राइफल निकाल कर आंगन की ओर भागा। देखता हूँ कि बीस-पच्चीस वर्ष का एक युवक, वहां खड़ा-खड़ा अपनी ही धुन में, आँखें मूंदे कुछ बड़बड़ा रहा था।

"कौन हो भाई? और यहां क्यों घुस आए हो? जानते नहीं यह प्राइवेट प्रॉपर्टी है!" स्वयं भयभीत होने के बावजूद मैंने गुस्से से पूछा।

"अरे नाराज़ क्यों होते हैं। मुझे क्षमा कर दीजिये, जंगल से शहर में आने के रास्ते बहुत कम हैं और आज मेरा शहर आना बहुत आवश्यक था। मैं तो ग़लती से आपके घर में घुस आया।"

इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाता, वह फिर बोल पड़ा - "लगता है आप यह सोच कर डर गए हैं कि कहीं मैं कोई चोर डाकू लुटेरा तो नहीं।"

"अरे नहीं नहीं! मैं कोई डरा वरा कुछ नहीं।" मैंने सकपका कर कहा, फ़िर थोड़ा सम्भल कर पूछा - "इस समय इतने घने जंगल में कहाँ से आ रहे थे? जहां तक मुझे पता है इस जंगल में तो आसपास कोई गाँव भी नहीं है। और कितने खुँखार जानवरों से भी तो भरा पड़ा है यह जंगल!"

"मैं जंगल में ही रहता हूँ, पीछे वाली पहाड़ी के उस पार। एक बरस में केवल पंद्रह दिनों के लिए ही शहर आता हूँ। चलकर आने में पूरा दिन लग जाता है। देखिये ना सुबह निकला था, पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी है। इतने बरसों से जंगल में रहते-रहते उसमें रहने वाले जानवरों से भी अच्छी मित्रता हो गयी है। तो उनसे डरने का तो सवाल ही नहीं। हाँ आप शहरी लोगों के डर को मैं अच्छे से जानता हूँ। आपको तो हर नए या अंजान प्राणी से डर लगता है। यह बन्दूक ही है ना आपके हाथ में? डर के मारे कितने जानवर मार दिए होंगे आपने अब तक?" उसके इस प्रश्न में एक तीखा कटाक्ष था।

"ख़ैर छोड़िये। आपको मुझसे घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं तुरंत शहर की तरफ़ निकलता हूँ। कुछ दिन शहर की मौज-मस्ती देखूँगा और फ़िर अपनी ज़रुरत की चीज़ें इकट्ठा करके वापस लौट जाऊँगा। बहुत ज़्यादा दिनों तक भी यहां का माहौल मुझे रास नहीं आता।" बिना रुके, एक ही सांस में वो यह सब कह गया।

मैं कुछ देर तक हतप्रभ, वैसा का वैसा, मूक खड़ा रहा। जब मेरी खोयी हुई हिम्मत लौटी तो मैंने कहा - " ये बन्दूक तो ख़ाली है, केवल डराने के लिए। वैसे रात काफ़ी हो चुकी है और इस वक़्त तुम्हें शहर में कुछ भी नहीं मिलेगा। इतने बड़े घर में मैं अकेला ही रहता हूँ। ज़्यादातर कमरे भी ख़ाली ही पड़े हैं। तुम चाहे तो रात यहीं गुज़ार सकते हो।"

"नाम क्या है तुम्हारा ?"

"मैं अरण्यक। जंगल में रहने वाला!" कह कर वह मुस्कुराया - "एक बार फ़िर मुझे क्षमा कर दीजिये, मैंने आपको ग़लत समझा। मैं कैसे आपका आभार प्रकट करूँ समझ नहीं आ रहा। शहर में रैन बसेरा मिलना वैसे ही बहुत कठिन होता है और मेरे लिए तो और भी अधिक, क्योंकि मेरे पास पैसे नहीं हैं। जंगल में पैसों की क्या आवश्यकता? हर वर्ष जंगल से अपने साथ कुछ दुर्लभ जड़ी बूटियाँ ले आता हूँ जिसके बदले कोई न कोई रुकने की जगह दे ही देता हैं।"

"यह लो! तुम्हारी इस कठिनाई का हल तो इस बार मेरे पास से निकल आया। इन पंद्रह दिनों के लिए तुम चाहे तो यहां रह सकते हो। और वह जड़ी बूटियां जो तुम्हारे पास हैं, मुझे दे देना!"

इस प्रकार अरण्यक पूरा दिन शहर में गुज़ार कर प्रतिदिन शाम ढलने से पहले घर आ जाता। रोज़ वह मुझे अपने जीवन से जुड़ी कोई न कोई अनोखी कहानी सुनाता। उसका सारा जीवन शहर की धूल-धक्कड़ से परे, प्रकृति के बीचों बीच, यहां की भाग-दौड़ और किसी भी प्रकार के मानसिक तनाव से दूर, नदियों, पहाड़ों और वादियों के बीच गुज़रा था।

"तुम जंगल में कब से रह रहे हो? क्या उम्र होगी तुम्हारी?" एक दिन ऐसे ही उत्सुकतावश मैंने पूछ लिया।

"मैं पच्चीस वर्ष का था तब से! तुम्हारी ही तरह स्कूल कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके एक अच्छी-ख़ासी नौकरी कर रहा था। मेरा घर भी तुम्हारे घर की तरह ही गंगा के तट पर हुआ करता था। उस वर्ष एक सन्यासी कुछ दिनों से मेरे घर के समीप रोज़ गंगा तट पर स्नान कर सुबह से रात तक ध्यानमग्न हो जाता था। उसे मैंने वहां पहले कभी नहीं देखा था। पंद्रह दिनों तक मैं उसकी यह दिनचर्या ऐसे ही देखता रहा, पर उस दिन मुझसे रहा नहीं गया। रात होते ही मैं उस सन्यासी के समीप जाकर बैठ गया और उसका ध्यान टूटने की प्रतीक्षा करने लगा। जैसे ही वह अपनी ध्यान मुद्रा से बाहर आया, मुझे देख कर मुस्कुराने लगा। बोला - "मैं तुम्हें ही लेने आया हूँ।"

मैं समझ नहीं पाया कि उसने ऐसा क्यों कहा परन्तु तात्पर्य पूछने के लिए मैं अपना मुंह भी न खोल पाया। उसकी आँखें एक अद्भुत व आलौकिक तेज से चमकने लगी थीं। सन्यासी उठा और एक लम्बी छलांग लगा कर गंगा नदी के उस पार पहुँच गया। पता नहीं कैसे, पर किसी मंत्र के वशीभूत मैं भी एक लम्बी छलांग में नदी के उस पार पहुँच गया। मेरे उस पार पहुँचते ही वह सन्यासी हवा में विलीन हो गया। तब से लेकर आजतक पूरे तीस वर्ष हो गए हैं। "

"ओह! इतने उम्रदराज़ तो तुम लगते ही नहीं।" मैंने आश्चर्य से कहा।

"हा हा हा। कभी कभी जो दिखता है वैसा होता नहीं है। आज यहां पर मेरे पंद्रह दिन पूरे होते हैं। अमावस्या की यह रात भी तीस वर्ष पहले की उसी रात की तरह घोर अँधेरी है। देखो मेरी आँखों में! मैं तुम्हें ही लेने यहां आया हूँ। हम सब पहले अरण्यक ही थे। अपने घर से दूर हो गए थे। किन्तु अब घर लौटने का समय हो गया है।  मुझ जैसे सैंकड़ों अरण्यक अपने बंधुओं को घर वापस ला रहे हैं। और आज से तुम भी इस कार्य में हमारे सहायक हो।"

ऐसा कहकर अरण्यक की आँखें एक अद्भुत व आलौकिक तेज से चमकने लगीं। वह घर से निकल कर गंगा के तट पर पहुंचा और एक लम्बी छलांग में उसे पार कर गया। मैं अभिमंत्रित सा, उसके पीछे पीछे चलता हुआ, न जाने कैसे, पर एक ही लम्बी छलांग में गंगा को पार कर गया । मेरे उस पार पहुँचते ही अरण्यक हवा में विलीन हो गया।

तुम सोच रहे हो कि यह कहानी मैंने यहां क्यों लिखी है? ये मैंने तुम्हारे ही लिए लिखी है। अगली अमावस्या को तुम भी अरण्यक होगे।




Comments

Unknown said…
Very nicely written.. enjoyed reading every single word...
satish said…
अरुण शब्द में सिर्फ उ की मात्रा हटा के थोड़ी सी कांट छांट करके तुम तो अरण्यक बन गए मगर सबका बनना बहुत कष्ट दायक होगा। बहुत सुंदर लिखा है

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