वीर बालिका नीरजा - भाग २


पहला भाग : वीर बालिका नीरजा - भाग १


नीरजा: "जी दादाजी। मेरी योग्यता पर किंचित संदेह किंचित=Slightest, संदेह=Doubt न कीजिये। आप केवल मुझे यह बताइए की जाना कहाँ है?"
वृक्ष: "ठीक है! तो ध्यान से सुनो! यहां से  कुछ पंद्रह सौ कोस दूर उत्तर दिशा में, हिमालय के पार, पामिर पर्वतों से घिरा हुआ काराकुल सरोवर है।  उस सरोवरLake का जल उसमें विचरण करने वाले जलजीवों के कारण गहरा काला हो गया है। किसी तरह तुम्हें उस सरोवर के तल से एक काला मोती प्राप्त करना होगा। उस मोती को पीस कर, उसके चूरे को तुम्हारे नाना द्वारा बनाई गयी औषधि में मिलाकर छोटी राजकुमारी को पिलाने से ही वह ठीक हो पाएगी।"

अपने परदादा से काराकुल तक पहुँचने की सारी जानकारी प्राप्त कर और उनका आशीर्वाद लेकर वह अकेले ही उस काले मोती की खोज में निकल पड़ी। दो दिनों तक अपने घोड़े पर सवार कई छोटी-बड़ी नदियों और पर्वतों को पार कर राजकुमारी ने एक घने जंगल में प्रवेश किया। अपनी थकान की तो राजकुमारी को इतनी चिंता न थी किन्तु घोड़े को भी विश्राम देना आवश्यक था। अतः नीरजा ने सुबह तक उसी वन में विश्राम करने का निर्णय लिया। अपने घोड़े को एक बरगद के पेड़ से बाँध कर वह स्व्यं भी उसी पेड़ की एक बड़ी सी टहनी पर जा कर बैठ गयी। थकान के कारण उसे तुरंत नींद आ गयी। 

अभी कुछ ही समय बीता था कि एक कर्णभेदी स्वर से राजकुमारी की आंखें खुल गयीं। अपने नन्हे हाथों से आंखें मलते हुए जैसे ही वह उठी तो  देखती क्या है कि एक विशाल पक्षी पर बैठा एक बूढ़ा व्यक्ति उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रहा है। उसकी दाढ़ी एकदम सफ़ेद और इतनी लम्बी थी कि उसमें एक गाँठ लगी होने के बाद भी वह उसके घुटनों को छू रही थी। उसकी आँखें पन्नेEmerald की तरह हरी थीं और सफ़ेद चेहरे पर बहुत सी झुर्रियां पड़ी हुई थीं। निर्भय होकर राजकुमारी ने पूछा, "कौन हो तुम बाबा?" "मैं हूँ उड़नछू देव और यह है मेरा उकाबEagle जिसका नाम है बवंडर।" बूढ़े ने उस विशाल पक्षी की ओर इशारा करते हुए कहा। "हम दोनों यहीं इसी पेड़ पर रहते हैं। आज दिन भर से मुझे अपने उकाब के लिए कोई शिकार नहीं मिला। तुम्हारा घोड़ा अब मेरा और मेरे बवंडर का भोजन बनेगा।" ऐसा कहकर वह बूढ़ा ज़ोर से हंसा। 


यह सुनकर राजकुमारी थोड़ा घबराई अवश्य, परन्तु अपनी घबराहट को उसने अपने चेहरे पर नहीं आने दिया। साहसी होने के साथ-साथ नीरजा बहुत बुद्धिमान भी थी। उसने बूढ़े से कहा - "बाबा! यह अश्व मुझे बहुत प्रिय है। इसे मारने से तुम्हें क्या मिलेगा? मैं नलगंदल की राजकुमारी नीरजा हूँ। अपने पिता महाराज ऋत्विक से कहकर तुम्हारे और तुम्हारे इस उकाब के जीवन भर रहने और खाने पीने का प्रबंध करवा दूँगी।  इस प्रकार तुम्हें प्रतिदिन भोजन की खोज में जंगलों में नहीं भटकना पड़ेगा।" बूढ़ा यह सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला - "वाह! मुझे देखते ही पता चल गया था कि तुम कोई सामान्य बालिका नहीं हो। मुझे तुम्हारा यह प्रस्तावOffer स्वीकार है। यह उकाब हम तीनों को लेकर कई दिनों तक उड़ सकता है। हम अभी तुम्हारे राज्य की ओर उड़ चलते हैं।"

 यह सुनकर  राजकुमारी ने कहा -"ठीक है, परन्तु तुम्हें कुछ दिनों के लिए यह पक्षी मुझे देना होगा। इसे लेकर मुझे पामिर पर्वतों में काराकुल सरोवर तक जाना है।" -ऐसा कहकर राजकुमारी ने अब तक की सारी कहानी उस बूढ़े को सुना दी। उड़नछू देव ने कहा -"अकेले यह यात्रा करना तुम्हारे लिए बहुत कठिन होगा। यदि तुम किसी तरह वहां पहुँच भी गयी तो उस सरोवर के तल से वह काला मोती कैसे प्राप्त करोगी? मैं तुम्हें वहां ले चलता हूँ। हिमालय की तलहटीFoothills में मेरा एक मित्र रहता है जो उस सरोवर से मोती प्राप्त करने में हमारी सहायता कर सकता है। वहां पहुँच कर हम उसे भी साथ ले लेंगे। 

इस प्रकार उकाब पर बैठ कर वे तीनों हिमालय की और उड़ चले। दो रात और दो दिन तक बिना रुके उड़ते रहने के बाद उन्हें हिम से ढंकी पर्वतों की चोटियां दिखाई देने लगीं। जहां से हिमालय श्रंखलाRange प्रारम्भ होती है, वहां घने जंगलों के बीच से एक बहुत बड़ी नदी बह रही थी। एक जगह रहस्यपूर्ण ढंग से उस नदी की धारा बीचों बीच विभाजितSplit हो गयी थी, जैसे किसी ने उसे बीच से चीर दिया हो। उस विभाजित हिस्से से नदी का तल दिखने लगा था और वहां एक नीले रंग की कुटिया बनी हुई थी।  उड़नछू देव ने उकाब के कान में कुछ कहा और वह उकाब उस कुटिया के समीप उतर गया। बूढ़े उड़नछू देव ने आवाज़ लगाई - "मित्र जलखंडू! मित्र जलखंडू!" थोड़ी देर के बाद उस नीली कुटिया से एक नीले रंग का छोटा सा व्यक्ति निकला।  उस व्यक्ति का चेहरा, आँखें, हाथ और यहां तक कि बाल भी नीले रंग के थे। बूढ़े को देखकर जलखंडू ऐसे प्रसन्न हुआ जैसे कई बरसों बाद उसे कोई परम मित्र मिला हो। 


उड़नछू ने राजकुमारी की सारी गाथा जलखंडू को सुना दी और उसे सहायता के लिए साथ चलने को कहा। पहले तो जलखंडू बहुत आनाकानी करने लगा। तब नीरजा ने उससे कहा कि यदि वह उनकी सहायता करेगा तो महाराज ऋत्विक से कह कर वह उसके रहने के लिए एक भव्य महल बनवा देगी, और उसे उस टूटी फूटी कुटिया में नहीं रहना पड़ेगा। तब जाकर जलखंडू इस शर्त पर मान गया कि महल नीले रंग का ही होना चाहिए।  इस प्रकार राजकुमारी के घोड़े को वहीँ कुटिया में छोड़ वे तीनों उकाब पर बैठ कर पामिर की ओर उड़ चले। दो रात और दो दिन की लम्बी यात्रा के बाद उन्हें पामिर की चोटियों के बीचों बीच एक महासरोवर दिखाई दिया जिसका जल अथाह काला था। वटवृक्ष के दिए हुए विवरण से राजकुमारी ने तुरंत पहचान लिया कि यही काराकुल सरोवर है। 


उकाब ने तीनों को सरोवर के दक्षिणी तट पर उतार दिया। सबसे पहले जलखंडू ने अपने हाथ से उस सरोवर के जल को छुआ। उसके स्पर्श मात्र से ही सरोवर का जल दो भागों में विभाजित हो गया और उसका तल दिखने लगा। उसके तल में असंख्य सफ़ेद सीपियाँShells दिखाई दे रही थीं। बूढ़े उड़नछू देव की हरी आंखें बहुत तीक्ष्ण थीं। उसने तुरंत उन असंख्य सीपियों के नीचे छिपी एकमात्र काले रंग की सीपी को ढूंढ लिया और राजकुमारी से कहा -"सुनो लड़की! मैं अपनी दाढ़ी की यह गाँठ खोलता हूँ। इसे पकड़ कर तुम सरोवर के तल में उतर जाओ और वह काली सीपी उठा लाओ।  ऐसा कह कर उसने राजकुमारी को अपनी उंगली के इशारे से उस काली सीपी के स्थान से अवगत कराया और अपनी दाढ़ी में लगी गाँठ खोल दी। उसकी दाढ़ी इतनी लम्बी थी कि सरोवर के तल को छूने लगी। राजकुमारी वह दाढ़ी पकड़ कर तुरंत नीचे उतर गयी और वह काली सीपी उठा लायी। बूढ़े ने अपनी दाढ़ी में पुनः गाँठ बाँध ली। जलखंडू भी सरोवर से बाहर निकल आया। 


उस बूढ़े ने वह सीपी उकाब की चोंच में रख दी। एक ही बार में उकाब ने अपने शक्तिशाली जबड़े से उस सीपी को तोड़ दिया। उसमें से एक बहुत ही सुन्दर काला मोती निकल आया जिसे देख राजकुमारी की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। अंततः उन तीनों ने उकाब पर चढ़कर अपनी वापसी यात्रा आरम्भ की। जलखंडू की कुटिया पहुँच कर तीनों ने थोड़ा विश्राम किया और राजकुमारी के प्रिय अश्व को भी साथ लेकर वे सब के सब बवंडर पर सवार होकर नलगंदल की ओर उड़ने लगे। तीन रात और तीन दिन के बाद उनकी यह साहसिक यात्रा समाप्त हुई और वे नलगंदल के राजमहल पहुँच गए।  

तब तक महाराज ऋत्विक भी दक्षिण अफ्रीका से लौट चुके थे। बिना किसी को बताए राजकुमारी नीरजा कहाँ चली गयी थी, किसी को ज्ञात नहीं था। एक ओर रागेश्वरी की चिंता और दूसरी ओर राजकुमारी नीरजा के यूँ अचानक खो जाने से पूरे महल में हड़कंप मच गया था। नीरजा को देखते ही राजा और रानी उसकी ओर दौड़े पड़े। रानी ने नीरजा को अपनी गोद में उठा लिया और राजा ने तुरंत सैनिकों को उड़नछू देव व जलखंडू को बंदी बनाने का आदेश दिया। तब राजकुमारी नीरजा के सारी कहानी सुनाने पर राजा ने दोनों महानुभावों से क्षमा मांगी और उनका धन्यवाद किया। 
तब उड़नछू देव ने वह मोती अपने उकाब की चोंच में रख दिया। उकाब ने पुनः एक ही बार में उस मोती का चूर्ण बना दिया। महाराज सुयश की बनायी औषधि में उस चूर्ण को मिला कर जैसे ही छोटी राजकुमारी को पिलाया गया वह ऐसे उठकर बैठ गयी जैसे कभी कुछ हुआ ही ना हो। महाराज और महारानी ने अपनी दोनों पुत्रियों को गले से लगा लिया और बहुत देर तक उन्हें दुलारते -पुचकारते रहे। 

नीरजा के वीरता भरे इस कार्य का समाचार सुन पूरे राज्य में उसकी जयजयकार होने लगी। राजकुमारी के वचन के अनुसार उड़नछू देव और उसके उकाब बवंडर के रहने के लिए एक भव्य महल का निर्माण किया गया। जलखंडू के लिए भी नीले रंग का एक विशाल महल बनवाया गया जिसमें वह अनंत काल तक निवास करता रहा। एक लम्बे अंतराल के पश्चात आज नलगंदल में पुनः सभी आनंदित थे। आगे चलकर राजकुमारी नीरजा महाराज ऋत्विक की उत्तराधिकारी एवं कुशल शासक बनी। कई वर्षों तक उसने उड़नछू देव और जलखंडू की सहायता से नलगंदल पर राज किया अपनी प्रजा के सुख व समृद्धि के लिए कई महान कार्य किये। 

                                            




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